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बुधवार, 29 मई 2013

नक्सली भी डरते थे उस ‘बस्तर के टाइगर’ महेंद्र कर्मा से

बस्तर में माओवादी आतंकवाद के खिलाफ महेंद्र कर्मा सही मायने में आखिरी आवाज थे। वे आदिवासियों की अस्मिता, उनके स्वाभिमान और उनकी पहचान के प्रतीक थे। भाजपा दिग्गज बलिराम कश्यप के निधन के बाद महेंद्र कर्मा का चले जाना जो शून्य बना रहा है, उसे कोई आसानी से भर नहीं पाएगा।

कर्मा यूं ही बस्तर टाइगर नहीं कहे जाते थे। उनका स्वभाव और समझौते न करने की उनकी वृत्ति ने उन्हें यह नाम दिलाया था। माओवादियों की इस अकेले आदमी से नफरत का अंदाजा आप इस बात से  लगा सकते हैं कि उन वहशियों ने कर्मा जी के शरीर पर छप्पन गोलियां दागीं, उनके शरीर को बुरी तरह चोटिल किया और वहां डांस भी किया। कल्पना करें यह काम भारतीय राज्य की पुलिस ने किया होता तो मानवाधिकारवादियों का गिरोह इस घटना पर कैसी हाय-तौबा मचाता। किंतु नहीं, बस्तर के इस वीर के लिए उनके पास सहानुभूति के शब्द भी नहीं हैं, वे यहां भी किंतु-परंतु कर रहे हैं। टीवी पर बोलते हुए ये माओवादी समर्थक बुद्धिजीवी और तथाकथित संभ्रात लोग इस घटना को ‘जस्टीफाई’कर रहे हैं।

महेंद्र कर्मा सच में बस्तर के सपूत थे। एक आदिवासी परिवार से आए कर्मा ने कम समय में ही समाज जीवन में जो जगह बनाई उसके लिए लोग तरसेंगें। यह साधारण नहीं है कि माओवादियों की विशाल सेना भी इस निहत्थे आदमी से डरती थी। इसलिए वे आत्मसमर्पण करने के बावजूद मारे जाते हैं। क्योंकि माओवादियों को पता है कि महेंद्र कर्मा मौत से डरने और भागने वाले इंसानों में नहीं थे। बस्तर से निर्दलीय सांसद का चुनाव जीतकर उन्होंने बता दिया था कि वे वास्तव में बस्तर के लोगों के दिल में रहते हैं। सांसद, विधायक, राज्य सरकार में मंत्री का पद हो या नेता प्रतिपक्ष का पद उनके व्यक्तित्व के आगे सब छोटे थे। कर्मा अपने सपनों के लिए और अपनों के लिए जीने वाले नेता थे।

सलवा जूडूम के माध्यम से उन्होंने जो काम प्रारंभ किया था वह काम भले कुछ शिकायतों के चलते बंद हो गया और सुप्रीम कोर्ट को इसमें दखल देनी पड़ी, पर जब युद्ध चल रहा हो तो लड़ाई सामान्य हथियारों से नहीं लड़ी जाती। उस समय उन्हें जो उपयोगी लगा उन्होंने किया। हिंसा के खिलाफ हिंसा, सिद्धांतः गलत है पर सामने जब दानवों की सेना खड़ी हो,जहरीले नाग खड़े हों जो भारतीय समाज और लोकतंत्र के शत्रु हों, उनसे लड़ाई लड़ने के लिए कौन से हथियार चाहिए, इसे शायद कर्मा जी ही जानते थे। अपनी शहादत से एक बार फिर उन्होंने यह साबित किया है कि माओवादियों से संवाद और बातचीत के भ्रम में सरकारें पड़ी रहीं, तो वे यूं ही निर्दोषों का खून बहाते रहेंगें।