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गुरुवार, 30 मई 2013

वसुंधरा की यात्रा से सियासत गरमाई

अपना जायल।

बीजेपी प्रदेशाध्यक्ष वसुंधरा राजे की सुराज यात्रा 3 जून को जायल पहुंच रही है। यात्रा को लेकर बीजेपी जहां ज्यादा से ज्यादा भीड़ इकठठा करने में जुटी हुई है। भाजपा में टिकट के उम्मीदवार ज्यादा से लोगों को अपने साथ लाकर शक्ति प्रदर्शन करने के मूढ़ में है। वहीं कांग्रेस भी संदेश यात्रा को लेकर पूरे जिले भर में अपनी उपब्धियों को पहुंचाने के लिए कमर कस ली है। भाजपा युवा मोर्चा में वसुंधरा की यात्रा को लेकर जबरदस्त उत्साह है पर बाकी भाजपा कार्यकर्ता अभी भी तैयार नहीं है। 

क्या गुल खिलाएगी संदेश और सुराज

बीजेपी सत्ता विरोधी लहर व सुराज के माध्यम से चुनाव मैदान में
कांग्रेस जनकल्याणकारी योजनाओं के दम पर भर रही हुंकार

अपना जायल।
चुनावी वर्ष में चुनावी माहौल के बीच गरमाती सियासत और इस बीच दो दिग्गजो की यात्राएं संदेश और सुराज। चुनावी वर्ष की आहट होते ही बीजेपी और कांग्रेस दोनों पार्टियां चुनाव के लिए मैदान में उतर चुकी है। जहां वसुंधरा राजे सुराज संकल्प यात्रा में लगभग आधा पड़ाव पार चुकी है वहीं कांगे्रेस भी इससे कहीं पीछे नहीं है और वो भी 15 जून तक लगभग पूरे राजस्थान को संदेश यात्रा के माध्यम से संदेश देना चाहेगी कि हमने क्या-क्या योजनाएं आपके लिए चलाई है और कौनसी योजनाएं लागू होगी। सुराज यात्रा के माध्यम से बीजेपी अच्छा राज देने की संकल्पना के साथ-साथ कांगे्रस सरकार की विफलता का पूरा फायदा उठाने चाहेगी।

कौन सही कौन गलत?

बीजेपी और कांग्रेस दोनो की पार्टियां भ्रष्टाचार पर कुछ भी नहीं बोली रही है और निजी टिप्पणियां कर सुर्खियां बंटोरना इनकी आदत बन गई है। चाहे गहलोत हो या वसुंधरा दोनों की एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की जड़ी लगा देते है पर दोनों ही विकास के लिए इतना कुछ क्येां नहीं करते जितना राजस्थान को विकास की आवश्यकता है।
गहलोत वसुंधरा पर भ्रष्टाचार के आरोप तो लगाते है पर उन आरोपों की जांच अभी तक क्यों नहीं हुई इस पर चुप्पी साध लेते है।
वसुंधरा भी गहलोत पर आरोप लगाती रही है कि उनके बेटे के संबंध मुंबई में बिजनेस में कई लोगों से है तो गहलोत उनको फायदा पहुंचाते है अगर ऐसा था तो वसुंधरा ने कभी भी इस मुद्दे को ज्यादा तूल क्यों नहीं दिया।

जनकल्याणकारी योजना का फायदा कांग्रेस को

प्रदेश के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एक तरह से फ्री दवा योजना, पेंशन योजना व अन्य जनकल्याणकारी योजनाओं के द्वारा बीजेपी को बैकफुट पर जरूर धकेल दिया है पर कई जगह कांग्रेस सरकार फ्लॉप भी साबित हुई जैसे स्वाइन फ्लू, तृतीय श्रेणी शिक्षक भर्ती आदि।

सत्ता विरोध के सहारे बीजेपी

बीजेपी इस चुनाव में सिर्फ सत्ता विरोधी लहर के सहारे चुनाव में खड़ी है जिसका फायदा बीजेपी कहां तक उठाती है यह भविष्य के गर्त में है। बीजेपी को इस बार सरकार के खिलाफ कोई बड़ा मुद्दा नहीं मिलने वाला है क्योंकि कांग्रेस की पिछले 6 महीने में राजस्थान में स्थिति बहुत हद तक सुधर गई, जिसका श्रेय जनकल्याणकारी योजनाओं को जाता है।

बुधवार, 29 मई 2013

नक्सली भी डरते थे उस ‘बस्तर के टाइगर’ महेंद्र कर्मा से

बस्तर में माओवादी आतंकवाद के खिलाफ महेंद्र कर्मा सही मायने में आखिरी आवाज थे। वे आदिवासियों की अस्मिता, उनके स्वाभिमान और उनकी पहचान के प्रतीक थे। भाजपा दिग्गज बलिराम कश्यप के निधन के बाद महेंद्र कर्मा का चले जाना जो शून्य बना रहा है, उसे कोई आसानी से भर नहीं पाएगा।

कर्मा यूं ही बस्तर टाइगर नहीं कहे जाते थे। उनका स्वभाव और समझौते न करने की उनकी वृत्ति ने उन्हें यह नाम दिलाया था। माओवादियों की इस अकेले आदमी से नफरत का अंदाजा आप इस बात से  लगा सकते हैं कि उन वहशियों ने कर्मा जी के शरीर पर छप्पन गोलियां दागीं, उनके शरीर को बुरी तरह चोटिल किया और वहां डांस भी किया। कल्पना करें यह काम भारतीय राज्य की पुलिस ने किया होता तो मानवाधिकारवादियों का गिरोह इस घटना पर कैसी हाय-तौबा मचाता। किंतु नहीं, बस्तर के इस वीर के लिए उनके पास सहानुभूति के शब्द भी नहीं हैं, वे यहां भी किंतु-परंतु कर रहे हैं। टीवी पर बोलते हुए ये माओवादी समर्थक बुद्धिजीवी और तथाकथित संभ्रात लोग इस घटना को ‘जस्टीफाई’कर रहे हैं।

महेंद्र कर्मा सच में बस्तर के सपूत थे। एक आदिवासी परिवार से आए कर्मा ने कम समय में ही समाज जीवन में जो जगह बनाई उसके लिए लोग तरसेंगें। यह साधारण नहीं है कि माओवादियों की विशाल सेना भी इस निहत्थे आदमी से डरती थी। इसलिए वे आत्मसमर्पण करने के बावजूद मारे जाते हैं। क्योंकि माओवादियों को पता है कि महेंद्र कर्मा मौत से डरने और भागने वाले इंसानों में नहीं थे। बस्तर से निर्दलीय सांसद का चुनाव जीतकर उन्होंने बता दिया था कि वे वास्तव में बस्तर के लोगों के दिल में रहते हैं। सांसद, विधायक, राज्य सरकार में मंत्री का पद हो या नेता प्रतिपक्ष का पद उनके व्यक्तित्व के आगे सब छोटे थे। कर्मा अपने सपनों के लिए और अपनों के लिए जीने वाले नेता थे।

सलवा जूडूम के माध्यम से उन्होंने जो काम प्रारंभ किया था वह काम भले कुछ शिकायतों के चलते बंद हो गया और सुप्रीम कोर्ट को इसमें दखल देनी पड़ी, पर जब युद्ध चल रहा हो तो लड़ाई सामान्य हथियारों से नहीं लड़ी जाती। उस समय उन्हें जो उपयोगी लगा उन्होंने किया। हिंसा के खिलाफ हिंसा, सिद्धांतः गलत है पर सामने जब दानवों की सेना खड़ी हो,जहरीले नाग खड़े हों जो भारतीय समाज और लोकतंत्र के शत्रु हों, उनसे लड़ाई लड़ने के लिए कौन से हथियार चाहिए, इसे शायद कर्मा जी ही जानते थे। अपनी शहादत से एक बार फिर उन्होंने यह साबित किया है कि माओवादियों से संवाद और बातचीत के भ्रम में सरकारें पड़ी रहीं, तो वे यूं ही निर्दोषों का खून बहाते रहेंगें।